रोज़ यूं ही कतरा कतरा कर बह गया ,
लहू रग़ों का मेरी आंख का पानी बन के.
खुली आंख से भी ना संभला, वो ख्वाब बिखर गया,
है यादों में मेरी, बचपन की कहानी बन के.
मैं किस ओर देखूं - कहां ढूंढा करूं उसको,
मेरा था कभी - अब चला गया जवानी बन के.
ऐसी कौन सी रग है बाकी- जो दुखती नहीं,
न छेड़ इनको तू अब- रुत सुहानी बन के.
तू वही है - हूं मै भी वही हमसाया तेरा,
फिर मिले क्युं ए ज़िन्दगी-रोज़ बेगानी बन के.
मत देख यूं पहले से ही हूं ज़ख्मी बहुत,
जो मर गया तो रुह भटकेगी - दीवानी बन के.
"Anaarhi"
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