रंगीनिया इधर की अगर हैं गुनाह उस पार जा के,
सफरे दश्त को छोड़ो जी क्या करना है उस पार जा के.
जैसी करनी वैसी भरनी तो रोज़ ए हश्र से डर कैसा,
साकी वही पिला दे और जो पीना है उस पार जाके.
इस आलम के आईने भी झूठे हैं इंसाँ की तरह,
जालिम कितने स्याह दिल हैं देखना है उस पार जा के.
उसके ज़ुल्म ओ सितम का मैं कह दूँगा इंसाफ़ हुआ,
जुल्मी को मेरे कदमो पर गर आना है उस पार जा के,
क्या हाले जाँ बताएँ हम इस तन को है आराम कहाँ,
सफ़र यहाँ इक करना है इक करना है उस पार जा के.
संग पे सर को पटके है बुतो पे झूठी तोहमत भी,
शायद उस "अनाड़ी " को कुछ भरना है उस पार जा के.
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